1. आईना खाना
आईना खाना भी अनरूहे तमन्ना निकला
गौर से देखा तो अपना ही तमाशा निकला
जिंदगी महफ़िल-ए-शब की थी पस अंदाज़ शराब
पीने बैठे तो बस एक घूँट ज़रा सा निकला
फिर चला मौसमे-वहशत में सर मित्सिले-इश्क
कर्सा-ए-फाल मेरे नाम दोबारा निकला
वाद-ए-शाएरतगी गम की तावाकोह बेसुध
दिल भी कम-बख्त तरफ दार उसी का निकला
है अजब तर्ज़ का राह’रो, दिल-ए-शोरीदा क़दम
जब भी निकला सफ़रे-इश्क पे तनहा निकला
वो रकीबों का पता पूछने आया मेरे घर
कोई तो उसे मुलाक़ात का रास्ता निकला
दर बदर खोवार हुए फिरते हैं हम हिजर-ए-नसीब
जान सपारी का भी क्या खूब नतीजा निकला
दिल में उठते रहे यादों के बगोले तिश्ना
मुझ में सिमटा हुआ, इक दर्द का सेहरा निकला
2. बैन और नागन
बैन और नागन का रसिया हूँ
प्यार की बामनी में रहता हूँ
अपने ख़्वाबों के दरवाज़े
कब से बंद किये बैठा हूँ
दीया अंधेरे बांट रहा था
मैं भी झोली भर लाया हूँ
हरा भरा है लॉन का सब्ज़ा
अन्दर से मैं सूख रहा हूँ
घर में आंगन भी होता था
अब तो मैं ये भूल चुका हूँ
आज भी ये मालूम नहीं है
मैं किस किस का हमसाया हूँ
अब तो एक सज़ा बाकी है
उम्रे-मोहब्बत काट चुका हूँ
मुझे बुझाना खेल नहीं है
मैं तो चरागे-शेहेरे हवा हूँ
3. बैठा हूँ जान
बैठा हूँ जान सुपुर्द किये यार के करीब
जिस तरह कोई सर रखे तलवार के करीब
कल रात रौशनी का करिश्मा था दीदनी
जलता था इक चराग़ रुख यार के करीब
हम को भी बैठने के लिए मिल गयी जगह
उस की गली में साया-ए दीवार के करीब
शोरियद गयी एहेले-मोहब्बत को चाहिए
कुचा इक और कुचाए-दिलदार के करीब
पड़ने लगा सियासत-ए-दरबार से वास्ता
पहुंचाए थे मुश्किलों से दर-ए-यार के करीब
इक तू ही क्या यहाँ किसी को खबर नहीं
बैठा है कौन क्यों तेरी दीवार के करीब
तिश्ना मुबाहिस-ए-गुल ओ आरज़ भी हूँ तमाम
रख देखिये ग़ुलाब भी रुखसार के करीब
4. दर्द की इक लहर
दर्द की इक लहर है बल खाती है यूँ दिल के करीब
मौज-ए-सर गुज़श्ता उठाये जिस तरह साहिल के करीब
मा-सवाए कार-ए-आह ओ अश्क किया है इश्क में
है सवाद-ए-आब ओ आतिश दीदा ओ दिल के करीब
दर्द में डूबी हुई आती है आवाज़-ए-जिर्स
गर्या-ए-गम गुश्तगी सुनता हूँ मंजिल के करीब
आरज़ू नयाफत की है सिलसिला दर सिलसिला
है नमूद-ए-करबे ला हासिल भी हासिल के करीब
कुछ तो उसे निजार्गान-ए-एश-ए-साहिल बो लिये
कश्तियाँ कितनी हुई गरकाब हासिल के करीब
है अभी वामाँदगी को इक सुफेर दर्पिश और
है अभी इफ्ताद-ए-मंजिल और मंजिल के करीब
मर्ग-ए-हसरत का तमाशा देखना था ग़र तुम्हे
रक्स आखिर देखते तुम आ के बिस्मिल के करीब
हैं वो सब तिश्ना सर-ए-मंजिल अमीर-ए-कारवां
जो मिले थे कारवां से आ के मंजिल के करीब
5. दुआ
खुदाया में जब भी दुआ मांगता हूँ
तो ये चाहता हूँ
कि मेरी दुआओं के फैले हुए हाथ को
मेहेरो-महताब चूमें
सितारे फलक से उतर कर हथेली पे मेरी
चराग़-ए कुबूल-ए-दुआ जगमगा दें
बहारें मुझे खुशबुओं की जज़ा दें
फ़रिश्ते अदम से कतारों में आएं
तेरी रहमतों और तेरी नेमतों के
शगुफ्ता गुलों से
मेरा का-साये दस्त भर दें
“अन-अमता अलैहीम” की सब मंजिलों की खबर दें
खुदाया मैं जब भी दुआ मांगता हूँ
तो ये चाहता हूँ
मेरे हाथ कंगूरा-ए-अर्श छूकर
मुझे सिर्तपा नूर ही नूर कर दें
मैं क्या चाहता हूँ
तुझे सब खबर है
तू सब जानता है
के तेरी अत्ता का बड़ा सिलसिला है
6. गिनती में बेशुमार थे
गिनती में बेशुमार थे कम कर दिए गए
हम साथ के कबीलों में ज़म कर दिए गए
पहले निसाब-ए-अदल हुआ हम से इंतसाब
फिर यूँ हवा के कतल भी हम कर दिए गए
पहले लहु लहान किया हमको शहर ने
फिर पैरहन हमारे अलम कर दिए गए
हर दौर में रहा ये ही अईन-ए-मुन्सफी
जो सर ना झुक सके वो क़लम कर दिए गए
इस दौर-ए-नाशनास में हम से अरब निजाद
लैब खोलने लगे तो अजम कर दिए गए
जब दरमियान में आई कमाल-ए-बशर की बात
हफ्त आसमां ज़ेर-ए-कदम कर दिए गए
पहले ही कम थी कर्या-ए-जाना में रौशनी
और उस पे कुछ चराग़ भी कम कर दिए गए
तिश्ना जो लफ्ज़ मसलेहतन हम ना कह सके
दीवार-ए-वक्त पर वो रकम कर दिए गए
7. हद-ए-सफ़र
हद-ए-सफ़र को सिद-ए-सिकंदर कहा गया
मजबूरी-ए-अमल को मुकद्दर कहा गया
पानी की वहशतों का भंवर नाम पड़ गया
दरियाओं की लह-हद को समुन्दर कहा गया
सूरज लहू हुआ तो शफ़क़ फूटने लगी
आगाज़-ए-शब को शाम का मंज़र कहा गया
डाले गए शिगाफ दरीचों के नाम पर
दीवार का था ज़ख्म जिसे दर कहा गया
अपनी ही एब पोशी को पोशाक कर लिया
तहजीब का था जबर जिसे घर कहा गया
जौक-ए-नमू कर सुबह अज़ल नाम दे दिया
जश्न-ए-ज़हूर ज़ात को महशर कहा गया
तिश्ना तेरी ग़ज़ल पे ये दाद-ए-सुखन शनास
सुन कर हर एक शेर मुक़र्रर कहा गया
8. इक दश्त-ए-आरज़ू है
इक दश्त-ए-आरज़ू है के फैला है दूर तक
और रह रवां-ए-शोक को जाना है दूर तक
अब तो ना तेरे कुर्ब की खुशबू ना कैफे शब
इक बेकिनार हिज्र का सेहरा है दूर तक
लो आखिरी दमों पे है इसे खास्तिगान-ए-शब
बुझते हुए चराग़ का साया है दूर तक
वो दश्त-ए-बेअमां है के साया न साईबान
सूरज ने अपना जाल बिछाया है दूर तक
क़दमों की चाप आती रही देर तक मुझे
जैसे मुझे मनाने वो आया है दूर तक
ये आलम-ए-खयाल है या आलम-ए-मिसाल
अपनी ही ख्वायिशों का तमाशा है दूर तक
वो कारवाँ-ए-रंग था गुज़रा चला गया
आँखों ने गर्द-ए-राह को चूमा है दूर तक
तिश्ना ज़रा सफीना-ए-जान को संभालना
सैलाब के हिसार में दरिया है दूर तक
9. इन ख्वाब निगर आँखों
इन ख्वाब निगर आँखों में तेरी काजल सा चराग़-ए-शाम का है
हर मौसम तेरी निस्बत से, हर मंज़र तेरे नाम का है
दिन ढला तो शब के बिस्तर पर तेरी ज़ुल्फ़ की अफशां बिखर गयी
ये दुनिया जिसको चाँद कहे, इक दीया वो तेरे बाम का है
हाथों के हिसार में लो रखना, हैं रौशनियों के अदोह बहुत
इस तेज़ हवा के मौसम में मुझे धरका चराग़-ए-शाम का है
कोई लेकर आये ताज़ा हवा, कोई झोंका ठन्डे मौसम का
ये लम्हे बड़े आशोब के हैं, ये वक्त बड़े आलाम का है
उसे अपने रास्तों चलना था, उसे जाना था, वो चला गया
पल दो पल की हमसफरी थी, अब रोना सुबहो-शाम का है
इस किसा-ए-गम का गम न करो, तुम अपनी आँखें नम न करो
ये हाल उसी बेहाल का है, ये नाम उसी बदनाम का है
सुनते हैं कई तिश्ना तेरी ग़ज़ल, मकबूल हैं माहरुखों में बहुत
कहते हैं के शहर-ए-निगारान में बड़ा शोहरा तेरे कलाम का है
10. जिधर भी देखता हूँ
जिधर भी देखता हूँ, इक तहरीर ही तमाशा है
खुदाया किस से पूछूँ आईने के उस तरफ क्या है
सुना है कर्या-ए-जान से है आगे कुचाए जाना
मगर ये रास्ता आशोब जान से हो के जाता है
तुम अपनी दिल की वीरानी से आँखें मत बुझा लेना
दरीचे हों अगर रोशन तो घर आबाद लगता है
तनाब-ए हंसीमा-ए-जान खींच लें सब काफिले वाले
सकूत-ए-शब ये कहता है के फिर तूफ़ान का खतरा है
अभी तो रास्तों की तुझ से होनी है हिना बंदी
अभी ऐ आबला पाई तुझे काँटों पे चलना है
गुबार-ए-राह किया हम तो थकन भी छोड़ ए हैं
हमें आता है तकमील-ए-सफ़र का जो क़रीना है
हमें साहिल पे रखवाया सर-ए-गर्दाब छोड़ आओ
ये कश्ती भी तुम्हारी है, ये दरिया भी तुम्हारा है
किताबों का लिखा तो उम्र भर तुमने पढ़ा तश्ना
ज़रा वो भी तो पढ़ लेते जो दीवारों पे लिखा है
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